अनाज की कमी से कैसे निपटें ?
रोनाल्ड मुसरेम ने एक निबंध लिखा है: “फूड फ़्रोम द सी”(समुद्री भोजन) । लेखक ने यह विश्लेषण किया है कि जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही है अनाज की कमी एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है । और कृषि-योग्य भूमि जितनी कम होती जा रही है उसी अनुपात में भुखमरी की समस्या एक गम्भीर रूप लेती जा रही है । लेखक यह सुझाव देता है कि यदि हम समुद्र में पाए जाने वाले जीव-जन्तुओं, पौधों, इत्यादि को अपने भोजन में शामिल कर लें, तो भुखमरी की इस समस्या से बहुत हद तक निपटा जा सकता है । समुद्र में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध है । यह खाद्य सामग्री हमारे लिए एक वरदान साबित हो सकती है । लेखक यह भी कहता है कि हमें सी फ़ार्मिंग यानि समुद्री खेती पर ध्यान देना चाहिए, यानि कैसे हम समुद्र को एक खेत के रूप में प्रयोग कर सकते हैं । साथ ही मछली पकड़ने तक ही सीमित न रहकर मछली की खेती, फिश फ़ार्मिंग भी अपनाई जानी चाहिए । यदि हम यह काम कर पाए तो समुद्र हमारी आवश्यकता का एक बहुत बड़ा हिस्सा पूरा कर सकता है ।

नि:संदेह, कृषि-योग्य भूमि सीमित होती जा रही है । इसने एक असंतुलन बना दिया है । और अब यह आवश्यक हो गया है कि हम उन क्षेत्रों पर भी प्रयोग करें जो अभी तक अनदेखे रहे हैं । उनमें से समुद्र एक महत्तपूर्ण क्षेत्र है । दुनियाभर में कृषि वैज्ञानिक और चिंतक प्रयोग कर रहे हैं, विचार-विमर्श कर रहे हैं ताकि अनाज की बढ़ती माँग को पूरा किया जा सके । प्रयोगशालाओं में खोज चल रही है कि मिट्टी की उर्वरता को कैसे बढ़ाया जाए, कैसे फसलों को, बीजों को और उपजाऊ बनाया जाए, कैसे कम-से-कम समय में ज़्यादा-से-ज़्यादा अनाज पैदा किया जाए ।

हमें लगता है कि भुखमरी की समस्या ज़्यादा अनाज पैदा करके ख़त्म की जा सकती है । हमें लगता है कि लोग इसलिए भूख से मरते हैं क्योंकि अनाज पर्याप्त मात्रा में पैदा नहीं किया जा सकता । दरअसल, इस मसले का एक ऐसा पहलू है जिस पर हमने उचित ध्यान नहीं दिया है : भुखमरी की समस्या का एक बड़ा कारण है अति-भोजन की आदत । ख़ासकर पश्चिमी देशों की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा अति-भोजन में संलिप्त है । इन देशों में मोटापे की बीमारी एक आम रोग बन गई है ।

अब, एक ओर कुछ लोग अति भोजन कर रहे हैं तो दूसरी ओर लोगों के लिए पर्याप्त भोजन की कमी होगी ही । यदि हम एक बात समझ पाएँ कि फसलों को उपजाऊ बनाने और मिट्टी की उत्पादक क्षमता को बढ़ाने में हम जितना पैसा और समय निवेश कर रहे हैं यदि उसका कुछ हिस्सा हम लोगों को जागरूक करने में लगाएँ तो करोड़ों लोगों की भूख मिटाई जा सकती है ।

फिर हमें यह भी समझना चाहिए कि जब हम अति में भोजन करते हैं तो न केवल हम दूसरों का हिस्सा मारते हैं बल्कि स्वयं के लिए भी परेशानी पैदा करते हैं । फिर हम इस डॉक्टर के पास जाते हैं, उस आहार विशेषज्ञ के पास भागते हैं । लेकिन यह बात बड़ी अजीब सी है कि हम अपना समय, अपनी ऊर्जा, और अपना धन व्यर्थ करते हैं अति भोजन करने में । फिर उसी अतिरिक्त भोजन की मात्रा को जलाने के लिए हम फिर समय, ऊर्जा, और धन व्यय करते हैं !

और एक चीज़ को जानें कि जो लोग मोटे दिखते हैं केवल वही अति भोजन नहीं करते । अति-भोजन का शौक़ (बीमारी/लत?) हम सभी को है, किसी-न-किसी रूप में, किसी-न-किसी मात्रा में । हम अपने आपको यदि देखें तो पाएँगे कि हम आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं । ठूँस-ठूँस कर, गले तक जितना समा सकता है, जितना अंदर डाला जा सकता है, डालते ही जाते हैं । औसतन, हम लगभग 30% भोजन अतिरिक्त करते हैं । तो यदि आप देखें छोटी सी गणना करके कि यदि दो लोग उस अतिरिक्त 30% को कम कर दें तो एक व्यक्ति का पेट भर सकता है । यदि 200 करोड़ लोग अपने-अपने भोजन में से 30% कम कर दें तो 100 करोड़ लोगों का पेट भर सकता है!

एक और बात : जब कभी आप ख़ुश होते हैं तो कम भोजन खाते हैं । क्यों ? क्योंकि ख़ुशी में आपको एक तृप्ति महसूस होती है । आप अंदर से संतुष्ट होते हैं तो भूख कम लगती है । और जब कभी आप तनावग्रस्त या दुखी होते हैं– और दुखी व्यक्ति बेहोश होता है–तो अपने भोजन की सही मात्रा का निर्धारण नहीं कर पाते । आपका शरीर तो बता रहा होता है कि कितना भोजन चाहिए, लेकिन क्योंकि आप बेहोश होते हैं इसलिए वह आवाज़ सुन नहीं पाते । इस अवलोकन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जब कभी आप ख़ुश होते हैं आपके भोजन की मात्रा कम हो जाती है । यानि, यदि लोग ख़ुश होकर जीने लगें तो अनाज की कमी से निपटने में बहुत मदद मिल सकती है। सभी ख़ुश होकर जीना चाहते हैं । फिर भी, ख़ुश रहना इतना कठिन क्यों है ? इसका एक बहुत बड़ा कारण है हमारे आसपास का नकारात्मक वातावरण । जब हम आपस में एक दूसरे से बात करते हैं–अपने मित्रों से, अपने सहकर्मियों से, नाते-रिश्तेदारों से–तो हमारी बातें ज़्यादातर नकारात्मक ही होती हैं । इसकी निंदा, उसकी निंदा, इससे ईर्ष्या, उससे ईर्ष्या । और फिर हम अपने समाचार-पत्रों को देखें, न्यूज़ चेनल्स को देखें तो वहाँ भी हम पाते हैं कि पूरे वक़्त समस्याएँ, परेशानियाँ, लड़ाई-झगड़े । पूरे वक़्त हम इन्हीं नकारात्मक चीज़ों को देखते-सुनते रहते हैं । इसके कारण हमारे चित्त की दशा दुखपूर्ण हो जाती है । फिर दुख से बेहोशी आती है और उससे असंतुलित! यदि भुखमरी की समस्या के इन पहलूओं को हम नज़रअंदाज कर देते हैं, तो फिर हम कितना ही भोजन पैदा कर लें उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा । अनाज की कमी हमेशा ही रहेगी ।

दूसरी बात : जिस दिन हम यह महसूस करने लगते हैं कि मैं जो खाना बचा पाऊँगा वह किसी और को तृप्त करेगा–ज़रुरी नहीं है कि हम उसे जानते हों–लेकिन दूसरों के प्रति प्रेम, करुणा, और एकात्मता भी हमारे भोजन को नियंत्रित करने में बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है । यदि हम यह महसूस करने लगें कि हमें होश में जीना है, ख़ुशी से जीना है, नकारात्मक चीज़ों को अपने आसपास नहीं भटकने देना है, तो फिर हम सुखी जीवन जीने लगेंगे । और जब हम सुखी जीवन जीयेंगे, भोजन कम खाएँगे, तो वह बचा हुआ भोजन उन लोगों तक पहुँचेगा जिन्हें इसकी आवश्यकता है ।

याद रखिए, हम सभी एक दूसरे के लिए उत्तरदायी हैं । एक रूसी लेखक हैं फ़्योडोर दोस्तोवेस्की !उनकी एक किताब है द ब्रदर्स कारमाज़ोव । उस किताब में एक पात्र यह कहता है कि हम सभी एक दूसरे के लिए ज़िम्मेदार हैं । इस दुनिया में जो भी घटना घटती है–अच्छी हो या बुरी, सद्घटना हो या दुर्घटना, कहीं कोई आतंकवादी हमला हो, किसी की हत्या हो–हर एक घटना में हम शामिल होते हैं, जाने अनजाने । यदि हम यह महसूस कर सकें कि अति-भोजन करके हम किसी की मृत्यु का कारण बन रहे हैं तो एक बड़ा रूपांतरण संभव है । मात्र इतनी अनुभूति कि हम सब एक समष्टि के हिस्से हैं, हममें कोई भेद नहीं है, यदि कोई भूखा है तो मैं भी भूखा हूँ, यदि कोई तृप्त है तो मैं भी तृप्त हूँ एक असीम रूपांतरण ला सकती है ।

एक बार की घटना है : रामकृष्ण परमहंस को कैंसर की बीमारी थी तो विवेकानंद ने कहा कि, “आप काली माँ के भक्त हो । माँ आपको प्रेम करती हैं । और भोजन आपको बहुत पसंद है । तो आप फिर माँ से यह क्यों नहीं कहते कि आपके गले को ठीक कर दें ? क्योंकि गला ठीक नहीं है और आप भोजन नहीं कर पाते ।” तो रामकृष्ण ने विवेकानंद से कहा कि, “ठीक है मैं आज माँ से बात करूँगा ।” अगले दिन विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा, "क्या आपने बात की ? माँ ने क्या कहा ?" रामकृष्ण ने कहा कि, “माँ ने कहा कि, “कब तक अपने ही गले से भोजन करते रहोगे । अब अपने शिष्यों के गले से भोजन करो ।”” यह छोटी सी घटना हमें यह बताती है कि जब तक हम अपने स्वार्थों से ही तृप्त होते रहते हैं, हम कभी भी गहन तृप्ति नहीं जान सकते । जब हम किसी और तक पहुँच कर उसकी तृप्ति में अपनी तृप्ति खोजने लगते हैं, जानने लगते हैं, बाँटने लगते हैं, तब उस तृप्ति का आनंद बहुत गहरा होता है ।

तो यह देख पाना कि आपका थोड़ा सा जागरुक होकर जीना किसी के पेट को भर सकता है आपको तृप्त कर सकता है । हम बार-बार बुद्ध की करुणा की बात करते हैं । एक कहानी है छोटी सी बुद्ध के जीवन के बारे में : एक माँ अपने बच्चे से कहती है कि, “तुम आज तक बुद्ध की बातें सुनकर शांत नहीं हो पाये, और बुद्ध का पूरा संदेश यही था कि मौन हो जाओ । बुद्ध चालीस साल तक इसीलिए बोलते रहे ताकि हम शांत हो जाएँ ।” यह थी बुद्ध की करुणा । चाहते तो कभी कुछ न बोलते । उन्होंने उस मौन को जान लिया था जिसके पश्चात भाषा विलीन हो जाती है । उसके बाद बोलना बहुत मुश्किल होता है । अंदर सारे शब्द, सारी अभिव्यक्तियाँ, सब कुछ, सब कुछ मिट जाता है । लेकिन बुद्ध ने बोला । अपने मौन से वे बाहर आए, हम तक पहुँचे, हमारे लिए बोला । यदि बुद्ध न बोलते तो हममें से बहुत सारे लोग परम आनंद को कभी न जान पाते । यदि ओशो न बोलते, यदि मोहम्मद न बोलते, तो जगत इतना रसपूर्ण न होता । इन लोगों ने पूरे जगत, पूरी सृष्टि के साथ प्रेम किया ।

अगर हम इतना न कर पायें तो कम-से-कम अति-भोजन से तो बचें । असली तृप्ति तो तब मिलेगी जब आप उस 70% भोजन से कुछ हिस्सा निकाल कर किसी को दे पाएँगे । तब होगा असली बाँटना । तब होंगे दो शरीर और एक आत्मा, दो शरीर और एक तृप्ति । लेकिन शुरुआत 30% को कम करके करें । जब आप उचित भोजन करेंगे, आपका शरीर हल्का होगा, स्वस्थ होगा, आनंदित होगा । आनंद में आप दूसरों के साथ जुड़ पाएँगे और एक दिन ऐसा होगा कि उस 70% में से भी कुछ हिस्सा निकालकर आप किसी के साथ बाँट पाएँगे! महावीर ने कहा है : जियो और जीने दो । अति-भोजन मत करो, बीमारियाँ न पालो । जियो स्वस्थ जीवन और दूसरों को जीने दो ।